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<big>'''पा'''-'''घ्रा'''-'''ध्मा'''-'''स्था'''-'''म्ना'''-'''दाण्'''-'''दृशि'''-'''अर्ति'''-'''सर्ति'''-'''शद'''-'''सदां, पिब'''-'''जिघ्र'''-'''धम'''-'''तिष्ठ'''-'''मन'''-'''यच्छ'''-'''पश्य'''-'''ऋच्छ'''-'''धौ'''-'''शीय'''-'''सीदाः''' (७.३.७८) = पा घ्रा ध्मा इत्यादीनां स्थाने पिब, जिघ्र, धम एते आदेशाः भवन्ति शिति परे | केवलं शिति परे इति धेयम् | अतः पिबति परन्तु पास्यति इति | पाश्च घ्राश्च ध्माश्च ... सद् च तेषामितरेतरद्वन्द्वः पा-घ्रा-ध्मा-स्था-म्ना-दाण्-दृशि-अर्ति-सर्ति-शद-सदः, तेषां पा-घ्रा-ध्मा-स्था-
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<big>अधुना '''पा'''-'''घ्रा'''-'''ध्मा''' (७.३.७८) इति सूत्रे दृशि इत्यस्ति | सानुबन्धधातुः दृशिर्, निरनुबन्धधातुश्च दृश्; कथं वा दृशि ? दृशिर् + इक् → दृश् + इ | इक्-प्रत्ययः धातुभ्यः विहितः, न शित् न वा तिङ् इति कृत्वा आर्धधातुकः, तस्मात् न शप् | अतः दृश् + इ इत्येव स्थितिः | इदानीम् अग्रे किमर्थं न '''पुगन्तलघूपधस्य च''' (७.३.८६) इत्यनेन गुणो न स्यात् ? इक्-प्रत्ययः कित्; कित्त्वात् '''क्क्ङिति च''' (१.१.५) इत्यनेन गुणनिषेधः | दृश् + इ → दृशि |</big>
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<big>तदा द्वादश प्रत्ययाः सन्ति ये एभ्यः धातुभ्यः विधीयन्ते; यदा इमे प्रत्ययाः विहिताः भवन्ति, तदा नूतनधातवः निष्पन्नाः भवन्ति | एषाम् अस्माभिः
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<big>सम्प्रसारणं नामकम् एकं कार्यं भवति व्याकरणे | अनेन यणः स्थाने
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<big>'''तनूकरणे तक्षः''' (३.१.७६) = तक्ष्-धातोः शप्-प्रत्ययः भवति कर्तरि सार्वधातुके; तनूकरणार्थे, पक्षे विकल्पेन श्नु-प्रत्ययः भवति | तनूकरणे सप्तम्यन्तं, तक्षः पञ्चम्यन्तं, द्विपदमिदं सूत्रम् | '''सार्वधातुके यक्''' (३.१.६७) इत्यस्मात् '''सार्वधातुके''' इत्यस्य अनुवृत्तिः, '''कर्तरि शप्''' (३.१.६८) इत्यस्य पूर्णसूत्रस्य अनुवृत्तिः, '''स्वादिभ्यः श्नुः''' (३.१.७३)
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